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"तृष्णा"
खुशी के रंग होते तो लगाती तुम्हें,
झलकना क्या होता है सिखाती तुम्हें।
सौ सरहदों के पार मिलतें हैं मुकाम,
हांथ पकड़ वहां ले जाती तुम्हें।
आज़ाद परिंदों के घौंसले हसीं हैं बहुत,
तिनका-तिनका जोड़ दिखाती तुम्हें।
उड़कर चहकना शामिल करके,
शोर दिन रात सुनाती तुम्हें।
ज़मीं से आसमां कब दूर रह पाते हैं,
गरज के साथ बरस के भिगाती तुम्हें।
तृष्णा की तृप्ति से पावन कौन है,
वाणी बोल-बोल समझाती तुम्हें।
© प्रज्ञा वाणी
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