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देह से औरत मगर ज़िम्मेदारी से पुरुष
देह से औरत
मगर ज़िम्मेदारी से पुरुष
उसके हिस्से की धूप भी सहती है
सुबह फटाफट किचन निपटा कर
खटखटा सीढियां उतरती है
बच्चों को लंच में ताज़ा सब्ज़ी देकर
अपने लिए अक्सर रात की सब्ज़ी या आचार ही पैक कर लेती है
उसकी भी पीठ दुखती है ऑफिस में बैठे बैठे
मन भी दुखता है घर में ताने उलाहने
और ऑफिस में बॉस की डाँट सुनते
पर क्या करे....
फँसी है ऐसे चक्रव्यूह में
न रहते बनता है न निकलते
अब उसके कमाए रुपयों की एक खास जगह हो गई है अब घर के बजट में

कभी कभी वो सीट पर बैठे , या बस , ट्रेन में सफ़र करते
सोचती है
काश मैं भी कुछ दिन कमर में साड़ी का पल्लू खोंसे
लापरवाही से बाल समेटे
यूँ ही फ़िज़ूल से काम करती
कुछ दिन घर में रह कर
कभी बिस्तर पर औंधी पड़ी रहती
कभी तसल्ली से चाय की चुस्कियां लेती
फोन पर घण्टों सहेलियों से बतियाती
दिन भर शॉपिंग करती
या कभी जी भर कर सोती

तभी ये सुहाना ख्वाब
बस के झटके से रुकने से टूट जाता है
वो एक उसाँस छोड़ती है.....
उफ़्फ़ ये टाइट कपड़े , खींच कर बांधे बाल
दिन भर चश्मा पहन कर दुखती कनपटी
ऊंची एड़ी की सैंडल की चुभन
दिन भर कम्प्यूटर पर चलती अकड़ी हुई उंगलियाँ
दुखता है सब कुछ
तन भी और मन भी

पूनम अग्रवाल