...

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ख़ुदसे रोज़ लड़ती एक नई जंग
हर रोज़ सुबह वो उठती ये सोच एक नया दिन नई शुरुआत
मुस्कुराहट में अपनी वो सब कुछ छुपाती
चलते चलते नजाने कब क़दम रुक से जाते
खड़ी होके बस ये सोचती, आखिर कब तक भागेगी तू
जंग चली आरी सालों से नजाने कब थमेगी
कब ज़िन्दगी निखरेगी , एक नया उजाला मिलेगा
बस इसी उम्मीद में हर रोज़ लड़ती वो एक नई जंग
रातों में नींद ना आना
सुकून सी नींद में झटपटा के उठ जाना
बताती नही किसीको वो , तकलीफ बहुत है मन में
खामोश है वो ये सोचकर, समझ कोई ना पाएगा उसे
उसकी भाग दौड़ में कहाँ संभाल पाएगा कोई उसे
अकेले चलती रोज़ वो , रुकेंगे ना आज उसके क़दम
ना जाने कब वो उलझ जाती वो अपने जंजालों में
बेड़ियाँ सी लगने लगी है रोज़
आखिर कब तक ख़ुदसे लड़ती रहेगी वो अपनी एक नई जंग।

© nancy