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ज़िन्दगी
ज़िन्दगी रेल की पटरी की तरह
कभी सीधी
कभी उलझी सी लगती है।
करती है पार कई पड़ाव
मंज़िल पर पहुंचने से पहले।
हर पड़ाव पर
मिलते हैं तजुर्बे
मुसाफिरों की तरह
कभी कभी कुछ पड़ाव
अतीत में जाने को
मजबूर करते हैं।
परंतु--
कुछ पल बाद अपने
तजुर्बे के आधार पर
फिर रफ्तार पकड़ लेती है
ज़िन्दगी--
अपनी मंज़िल पाने की चाह में ।
कभी सीधी
कभी उलझी सी लगती है।
करती है पार कई पड़ाव
मंज़िल पर पहुंचने से पहले।
हर पड़ाव पर
मिलते हैं तजुर्बे
मुसाफिरों की तरह
कभी कभी कुछ पड़ाव
अतीत में जाने को
मजबूर करते हैं।
परंतु--
कुछ पल बाद अपने
तजुर्बे के आधार पर
फिर रफ्तार पकड़ लेती है
ज़िन्दगी--
अपनी मंज़िल पाने की चाह में ।
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