...

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ज़रिया एक पहल कानपुर की..
*ज़रिया*
सोच नई नहीं है ये कोई,
प्रतिभा छिपी है इसमें कई,
लाख टके की एक बात कहूं..
एक दर्द छुपा है उन बच्चो में कहीं!

ना हो शायद हमे कद्र इन खाली पन्नों की,
जाकर पूछो उनसे जिनको नहीं मिले ये पल,
हम तो खूब बना गेंद और जहाज़ खेली,
फिर भी ना सोची किसी के भविष्य की..

नज़रे मेरी झुक जाती है उन मासूमों के सवाल पर,
बस एक मौका ही मिल जाए पढ़ने के हुनर पर..
अपनी पंक्तियों से उसके लिए नतमस्तक है मेरा,
*ज़रिया* की पहल पर लिख धन्य हुआ जीवन मेरा।

© अदीत श्रीवास्तव