...

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गरीबी
वक्त के साथ-साथ चलना स्वीकार कर लिए
सूरज के तपन से दोस्ती कर लिए,
जब देखें ठंडी तवा सुबह से शाम तक
ज्वाला भूख का सबसे अधिक ये अहसास करने लगे।

न कांटों के चूभन दिखे,
न बहते पसीने का रहा ख्याल,
नजरों में था वह एक ही मंजर
बेटी के हाथों डंडे का निशान।

तमाम बाधाओं से जुझते
जब निकले लिए रिक्शा गलियों में,
कितनों को पहुंचाएं मंजिल तक
अपने मंजिल के तलाश में।

बड़ी बिडम्बना है आज तक
न हल कोई निकल आया,
भूखा भूख से मर तड़पता रहा
लूटने वाले तिजोरी भरता रहा।