कागज़ कलम
कागज कलम और भावों का सागर जब होकर व्याकुल रुदन करते हैं......
कागज रोकर कलम तड़पकर एक तुच्छ काव्य का सृजन करते हैं......
इस रोने तडपने के मध्य भावों के झंझावत का कोलाहल है......
यूं तो काव्य है भी क्या ,देखा जाए तो शब्द भर है....
ये शब्द ज़रूरी है बवंडर को थामने के लिए....
भावों की गहराई और व्याकुलता की ऊँचाई मापने के लिए
जो पीड़ा मन की चादर को छलनी छलनी करती है
शब्द का धागा और भावों की सुई उसकी तुरपन करती है
जो तड़प किसी को दिखा न सको जो दर्द जुबां पर ला न सको
उसको छिपाना चेहरे पर एक अनृत मुस्कान रखकर
उसको छिपाना नयनों में सपनों की राख का काजल भरकर
उसको छिपाना अधरों पर रक्तरंजित ह्रदय की लाली रचकर
और जब पार हो जाए सभी सीमाएं पीड़ा की
जब टूट जाए सारे बाँध शून्यता के
जब छटपटाहट मन की रोके से भी न रुके
तब..........
कागज रोकर कलम तड़पकर एक तुच्छ काव्य का सृजन करते हैं.
यूं तो काव्य है भी क्या ,देखा जाए तो शब्द भर है....
शब्द ही तो है जो बाँधते है भावों की लहरों को
शब्द ही तो है जो थामते है तूफान संताप का
जैसे कोई नन्हा बालक कह देता है माँ को हर आघात
जैसे कोई भक्त ईश्वर के सम्मुख रख देता है हदय को खोल के
वैसे ही कलम बन जाती है ज़रिया शब्दों के शयनागार बनाने को
जहाँ भाव करते है विश्राम , व्याकुलता कोलाहल से दूर
नवजीवन नव आशा के सुखद मधुर स्वपनों के संग......
गर्ग साहिबा
© Garg sahiba