...

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बेवजहा सा
बेवजहा सा चला जा रहा हूं
अब नहीं है कोई होश अपना
बहुत कुछ छूट गया मेरा पीछे
वो मुझे वापस अपनी ओर खींचे
पहले जरा मंजिल को तो छूं लू
फिर देखूंगा वापसी का हसीन सपना

बेवजहा सा खुद को ढोये जा रहा हूं
इस दुनिया के सब बाजारों में
कटते थे जो दिन तेरी बाहों के हारो में
कटते हैं वो अब सूरज के कड़े उजियारों में
बस रातें अब भी कटती है मेरी उन्ही बहारों में
आंखें बंद करके मैं खो जाता हूं तेरी आंखों के तारों में

बेवजहा सा खुद को सता रहा हूं
खुद को सताना भी इक जुर्म संगीन सा हो जाता है
दिन भर में जहां मौसम गमगीन सा हो जाता है
रात को तेरी यादों से शमां कुछ रंगीन सा हो जाता है
यूं तो कहता हूं कि तू अब इतना याद नहीं आता है
बस खाते वक्त खाना कुछ नमकीन सा हो जाता है

बेवजहा सा जीये जा रहा हूं
अब नहीं है कोई होश अपना
बस बेवजहा सा....... मैं ....
© surajbaliyan_