बारिश
बारिश भी कोने से गुज़रती है
मन के हर मयखाने से गुज़रती है
यादो को सहेजते सहलाते
मेरे अंदर के तहखाने से गुज़रती है
कितना भी झुठलाएँ पतझड की शाख को,
कटे हुए हिस्सो में पत्ते उगाए गुज़रती है
गमों को हवा बनाकर उछाल फेंका है मैने जमीन से,
काले घन बनकर मेरे छत से इक रोज गुज़रती है
हा!! बारिश मेरे मन के कोने से गुज़रती है
महकाते चंद तुम्हारी यादों के सिलसिले
हर रोज सराबोर करते गुज़रती है|
बारिश तु कैसे कैसे गुज़रती है
ना ठहरे तु क्युं इस तरह गुज़रती है|
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