ख़्यालों का बक्सा
सालों बाद मैंने खोला अपने ख़्यालों का बक्सा...
कुछ टूटे
कुछ पूरे
कुछ बिखरे कुछ अधूरे
कुछ सुंदर
कुछ वीभत्स
कुछ सुकोमल
कुछ खुरदुरे
भिन्न-भिन्न के,
भाँति-भाँति के,
बहुत सारे
ढेर सारे
बस इतने से ही तो थे मेरे ख़्याल...।
किसी में थी सुंदर भविष्य की कल्पना
तो किसी में था आने वाले कल का भय।
किसी में मैंने देखा ख़ुद को अतीत को टहोकते-टटोलते मिलने वाले अजीब से सुकून को पाते हुए...
किसी ख़्याल में बीते कल की सुंदर रील चलाई
मैंने अपने मन में,
तो किसी ख़्याल में बीते कल की
भूलों को याद याद करके
ग्लानि से भर लिया
मन को।
किसी ख़्याल में थीं वर्तमान से शिकायतें अपार
तो किसी ख़्याल में भरा था मन में
वर्तमान के लिए ढेर सारा आभार।
किसी ख़्याल में मन भर आया
इस जीवन से
तो किसी ख़्याल में मैंने दोनों बाहें फैला
गले लगाया इस जीवन को।
किसी ख़्याल में रहीं ख़ुद से शिकायतें
और नफ़रत अपार,
तो किसी ख़्याल में मैं भर गई ख़ुद पर
गर्व और खुशी के अहसासों से।
किसी ख़्याल ने रुलाया बहुत
तो किसी ख़्याल...