शाश्वत प्रेम
वियोग की रात्रि का वो प्रथम प्रहर,
और मैं विरह की चादर तन पर ओढ़े,
कुटिया की ड्योढ़ी पर खड़ी होकर,
एकटक बस उसी राह को ताकती रही,
जहां से तुम्हारे कदमों की आहट अब तक,
मेरे कानों में किसी मंदिर के घंटों सी गूंजती रही,
तुम्हारे मना करने के बाद भी मेरे अश्रु की बूंदें,
मेरे कपोलों से लुड़क कर माटी में जाकर मिल गईं,
अपने हृदय की मूर्छा लिए मैं भीतर कुटिया में जा बैठी,
लालटेन की रोशनी के साथ जलता मेरा मन कितना आहत था,
तुम्हारे लौट आने की आस लिए अश्रुपूरित नैनों से मैं शैय्या पर लेटी ही थी कि,
मेरी स्मृति में तुम्हारी छवि और भी ज्यादा मनमोहक होती गई,
याद आई...
और मैं विरह की चादर तन पर ओढ़े,
कुटिया की ड्योढ़ी पर खड़ी होकर,
एकटक बस उसी राह को ताकती रही,
जहां से तुम्हारे कदमों की आहट अब तक,
मेरे कानों में किसी मंदिर के घंटों सी गूंजती रही,
तुम्हारे मना करने के बाद भी मेरे अश्रु की बूंदें,
मेरे कपोलों से लुड़क कर माटी में जाकर मिल गईं,
अपने हृदय की मूर्छा लिए मैं भीतर कुटिया में जा बैठी,
लालटेन की रोशनी के साथ जलता मेरा मन कितना आहत था,
तुम्हारे लौट आने की आस लिए अश्रुपूरित नैनों से मैं शैय्या पर लेटी ही थी कि,
मेरी स्मृति में तुम्हारी छवि और भी ज्यादा मनमोहक होती गई,
याद आई...