सफ़र
बहुत सुनना चाहा तुम्हे
लेकिन हर मर्तबा
तुम्हारी ख़ामोशी को सुना
ख़ामोशी पसंद तो मैं भी था
लेकिन ज़ब खामोशियाँ जेहन
में चीखने लगी तो
ग़ज़ल का शक्ल इख़्तियार कर लीं
ये बताओ आख़री बार कब तुमने
खुद की आँखों में झांका था
अगर झाकती तो बुझती सूरत दिखती
तुम तो बुलंदी परस्त थी
हवावों को गले लगाया
मेरे हिस्से में वही सुर्ख दरख़्त के
पत्ते आ गिरे
अब डर है कहीं कोई अंधी ना चल पड़े
मुझे सहेजने की आदत थी
मैंने बूढ़े दरख़्त के पतों को
सहेज़ के रखा है
और सहेजा है अपने मरे...
लेकिन हर मर्तबा
तुम्हारी ख़ामोशी को सुना
ख़ामोशी पसंद तो मैं भी था
लेकिन ज़ब खामोशियाँ जेहन
में चीखने लगी तो
ग़ज़ल का शक्ल इख़्तियार कर लीं
ये बताओ आख़री बार कब तुमने
खुद की आँखों में झांका था
अगर झाकती तो बुझती सूरत दिखती
तुम तो बुलंदी परस्त थी
हवावों को गले लगाया
मेरे हिस्से में वही सुर्ख दरख़्त के
पत्ते आ गिरे
अब डर है कहीं कोई अंधी ना चल पड़े
मुझे सहेजने की आदत थी
मैंने बूढ़े दरख़्त के पतों को
सहेज़ के रखा है
और सहेजा है अपने मरे...