...

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फूल मोहब्बत का...
उन जुल्फों की सैर मत पूछो ,ये पूछो उस रात क्या किया था
इशारों में हाँ किया था, हक़ीक़त में क्या किया था

आराइश-ए-दीद उन नैनों की ,फ़क़त हमने चराग़ रखा था
जुर्म-ए-फ़ितरत उन लबों को,मुसलसल वजीफ़ा अर्ज किया था

होश उड़ा था ,बेहोश पड़ा था,तलब-ए-जाम को बदनाम किया था
मोहब्बत थी,नसीहत थी,हुस्न के ठेकों को आगाज़ किया था

क़ौल उन बंदिशों की खातिर ,हिफाज़त नामा पेश किया था
गुनाह परखने दो हमें ,खुद दिल में गुनाहगार कैद किया था

वो खेल नया नया था शायद,जो गफ़लत में नुकसान किया था
वो फूल मोहब्बत का लाने में, उस रात को इब्रत में बेकार किया था
© दीपक चंद्र