बलात्कार💔
चलो आज एक मुद्दे पे बात करते हैं रुह से नहीं तुम्हें जिस्म से ज्ञात करते हैं उन झुलसते हुए दिनों की नहीं , उन अंधेरों में कुचलती रातों की बात करते हैं।
हर सवेरा मेरा बहबूब कहलाता है सूरज की किरण एक आईना दिखलाता है मजहब के इत्रों से दुर थी में , कि मेरा रूहानी इत्र ही मुझे बतलाता था।
दरिंदों को यह बात रास ना आई रास्तों पे चलते उन्हें जिस्म की महक सी आई घूर के खाने की तलब थी उनकी तभी उनके आँखों में दरिंदगी सी आई।
कुछ दूर चलते ही मेरे पैर घबराने लगे बेबस से चेहरे पे पसीने सहलाने लगे धुप की किरण चुभती थी अक्सर आज तो बादल भी इतराने लगे ।
अब कुव्वत से जकड़ उनकी हैवानियत की पकड़...