...

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बलात्कार💔

चलो आज एक मुद्दे पे बात करते हैं रुह से नहीं तुम्हें जिस्म से ज्ञात करते हैं उन झुलसते हुए दिनों की नहीं , उन अंधेरों में कुचलती रातों की बात करते हैं।

हर सवेरा मेरा बहबूब कहलाता है सूरज की किरण एक आईना दिखलाता है मजहब के इत्रों से दुर थी में , कि मेरा रूहानी इत्र ही मुझे बतलाता था।

दरिंदों को यह बात रास ना आई रास्तों पे चलते उन्हें जिस्म की महक सी आई घूर के खाने की तलब थी उनकी तभी उनके आँखों में दरिंदगी सी आई।

कुछ दूर चलते ही मेरे पैर घबराने लगे बेबस से चेहरे पे पसीने सहलाने लगे धुप की किरण चुभती थी अक्सर आज तो बादल भी इतराने लगे ।

अब कुव्वत से जकड़ उनकी हैवानियत की पकड़ सहम चुकी थी मैं देख के उनकी आँखों की भड़क ।


रोंद रहे थे वो मेरे जिस्म को मेरे चीखते हालातों का सिलसिला सुरू हुआ आँखों से आँसू इस कदर बरस रहे थे की मेरे जिस्म का तड़पना सुरू हुआ ।

मेरे जिस्म को वो बर्बाद करना चाह रहे थे पर उन्हें नहीं पता ये जिस्म भी रूह से चलता है हैवान क्या जानें इज्जत का गुरूर उसे नहीं पता की इंसानियत भी इंसान से चलता है।


वो लोग अब जा चुके थे, छोड़ कर मेरे जिस्म को सड़क के कोने में बन कर लाश वंही पड़ी थी मैं होंसला टूटा हुआ और लगी रही मैं रोने में।

कुछ देर बाद खुद को समेट कर पहुँच गई घर हालातों को समझ कर डरी हुई थी मेरी रूह कि वो भी रो रही थी जिस्म को लपेट कर।


सोचा माँ से ज़िक्र करूँ पर हाथ पांव काँप रहे थे समाज में को मुंह उठाकर चला करती थी अब आँखें भी जमीन का रास्ता नाप रहे थे।


अंदर ही अंदर मर रही थी मैं उस शाम कुछ बातें लिखना अच्छा समझा मेने कायरे थी में जो झुलस न पाई इस तपन से चांदनी रात में फांसी लगाकर मरना अच्छा समझा मैने|
© Feel_the_words
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