...

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तुम
क्या तुम कभी मुख़ातिब हो पाओगे,
खुद से,
जो मेरे अंदर तुम हो,
तुम नहीं देख पाओगे वो हँसी तुम्हारी,
बुलबुलों सी खिलखिला के फूट जाती हैं।
तुम नहीं देख पाओगे वो चलना तुम्हारा, ख़जाने का पहरेदार, जोश में बल खाता हैं।
तुम नहीं देख पाओगे मोटरों पे घूमना तुम्हारा,
जो किसी नायक सा इतराता है।
नहीं देख पाओगें वो ग़ुस्सा तुम्हारा,
जो कभी मेरी हसीं से गुम हो जाता हैं।
कुछ तो हो तुम,
कोई जादूगर की कारिस्तानी हैं,
मेरी आँखें ख़राब हैं, या कोई करिश्माई निशानी हैं।
कुछ तो हो तुम,
जो रोज़ यूँ चले आते हो,
कौनसी घुट्टी पिलायी कभी तुमने,
जो इतना असर दिखाते हो।
कहाँ के मालिक हों,
जो किराया मांगने आते हों।
क्या कोई रंगदार हो,
क्या वसूल चले आते हो।

ये मेरे अंदर तुम्हारे रूप हैं,
मुझे हर रूप में तुम भाते हों,
तुम कहाँ हो,
कोई ढूंढे तुम्हें
उसे तुम मुझ में मिल जाते हों।
© maniemo