आंचल में उसका घर है।
*• आंचल में उसका घर है।*
जन–जन में ढूंढ़ती है,
नयन–नयन में ढूंढ़ती है,
गगन में, पवन में,
आलिंगन में, तो कभी गमन में,
बातों के सार में,
झरोखे के पार में,
वृक्ष के डाल में,
सृष्टि के काल में,
उष्ण करे जो हाथों को,
ऐसा एक कर ढूंढ़ती है,
वो अपना घर ढूंढ़ती है।
रोती नहीं,
प्रतीक्षा में क्षण काटती है,
तो कभी अधीर हो,
सड़कों पर निकल जाती है,
सब पूछे है उससे, घर का पता,
बताओ !
है घर किस रस्ते से कटा,
भीति नहीं, है मौन खड़ी,
अश्रु नहीं बस मुस्काती है,
जन–जन को,
असमंजस में छोड़ जाती है,
पीहू, नदी, गिरि,
कुहू, सदी, झिरी,
सब ढांढस बंधाती है,
जो मित्र का परिचय पाती है।
अपने नंगे पावों से चलकर,
चमकीले नयनों में,
उमंग सह वेदना,
तो चिंतन सह अधृति लिए,
सायम्–सा ढलकर,
श्वेत आंचल कि ओर,
अपने छोटे हाथ बढ़ाती है,
स्पर्श पाकर,
आंचल की ममता छलक जाती है,
उसे स्नेह से सराबोर कर जाती है,
उसके स्नेह को देखकर,
आंचल सजीव हो उठती है,
और ममता का गान गाती है,
उसके सानिध्य से,
स्वयं...
जन–जन में ढूंढ़ती है,
नयन–नयन में ढूंढ़ती है,
गगन में, पवन में,
आलिंगन में, तो कभी गमन में,
बातों के सार में,
झरोखे के पार में,
वृक्ष के डाल में,
सृष्टि के काल में,
उष्ण करे जो हाथों को,
ऐसा एक कर ढूंढ़ती है,
वो अपना घर ढूंढ़ती है।
रोती नहीं,
प्रतीक्षा में क्षण काटती है,
तो कभी अधीर हो,
सड़कों पर निकल जाती है,
सब पूछे है उससे, घर का पता,
बताओ !
है घर किस रस्ते से कटा,
भीति नहीं, है मौन खड़ी,
अश्रु नहीं बस मुस्काती है,
जन–जन को,
असमंजस में छोड़ जाती है,
पीहू, नदी, गिरि,
कुहू, सदी, झिरी,
सब ढांढस बंधाती है,
जो मित्र का परिचय पाती है।
अपने नंगे पावों से चलकर,
चमकीले नयनों में,
उमंग सह वेदना,
तो चिंतन सह अधृति लिए,
सायम्–सा ढलकर,
श्वेत आंचल कि ओर,
अपने छोटे हाथ बढ़ाती है,
स्पर्श पाकर,
आंचल की ममता छलक जाती है,
उसे स्नेह से सराबोर कर जाती है,
उसके स्नेह को देखकर,
आंचल सजीव हो उठती है,
और ममता का गान गाती है,
उसके सानिध्य से,
स्वयं...