...

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" मैं ऐसी हुँ "
मैं खुद को पानी जैसी लगती हूँ
अपनों के लिए बर्तन के पानी जैसी उसके अनुरूप ही रहती हूँ
उन्नत्ति के लिए नित निरंतर नदी जैसे बहती हूँ
गर आये क्रोध कभी तो समुन्दर के सैलाब सी उठती हूँ
कि मैं खुद को पानी जैसी लगती हूँ
प्यास ,प्रेम में पवित्रता ऐसी की जीवन ही बन रहती हूँ
गर अशुद्धता हो कोई तो फिर गंभीर परिणाम सी दिखती हूँ
हो कोई सब हेतु अचानक आयी बाढ़ सी लगती हूँ
कि मैं खुद को पानी जैसी लगती हूँ
शरीर में हूँ आधे से अधिक पर कम ही दिखती हूँ
गर रहे लोग संतुलन में तो जीवनदायी अमृत लगती हूँ
बिगड़ते ही संतुलन मेरा पीड़ादायी लगने लगती हूँ
कि मैं खुद को पानी जैसी लगती हूँ

© Gayatri Dwivedi