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कल का छिपता सूरज
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कल का छिपता सूरज,
साक्षी है, उनके अरमानों का।
मुट्ठी भर अपनी दौलत से,
ताकते मुंह दुकानों का।
फटी सिक्कों की पोटली में,
झिझक ही सिर्फ रह जाती है,
थामे नन्हे हाथों को,
वो लौट कई बार आती है।
जब आज के उगते सूरज में,
उसको मनचाहा पाना है,
छोड़ उन नन्हे हाथों को,
उसे लौट कही और जाना है।
हां, लिया है वक्त हमने भी काफी,
दोषी में भी पूरा हूं,
वरना इन थामे हाथो को,
फिसलते कभी ना देखा है।
© AshR