...

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आलम
वो एक आलम था जो मुद्दतों से मेरे साथ रहता था
मायूस, महरूम और तन्हा जिंदगी रोज़ किया करती थी

ऐसे माहौल में बचैनी सोना मुश्किल कर देती थी
नींद आ भी जाती तो, सुबह इक बे-क़रारी जगाया करती थी

और दिन भर तेरा खयाल ज़हन पर छाया रहता था
कुछ ऐसे माहोल में मेरी हर शाम ढला करती थी

शाम ढले इक अफसुर्दगी मुझको घेरा करती थी
फिर बहुत देर तक मुझसे तेरी यादें कलाम करती थी

रात तो रोज़ घिर आती थी पर हालत वही रहते थे
और बिस्तर के सिलवटें मेरी बेबसी बयां करती थी

© 'क़फ़स'

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