...

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ग़ज़ल
याद में और हिज्र के ग़म में
दिल तड़पता है सर्द मौसम में

ज़ुल्फ़-ए-ख़म में तेरी मैं खो रहा हूँ
ले चलो मुझको दाँग-ए-आलम में

चाह बढ़ती ही जा रही है मेरी
काम चलता नहीं है अब कम में

सौंप दी दुनिया हाथों में उसके
क्या दिखा! उस खुदा को आदम में

रात के राज़ हो गए सब क़ैद
झाँक के देखो तुम भी शबनम में

शौक़ सिगरिट का जानलेवा हुआ
दम निकलता है अब हरिक दम में

इश्क़ कर बैठे हो हमीं से तुम
ऐसा भी क्या दिखा तुम्हें हम में

ज़ाया क्यों करते हो ख़ुशी के पल
डूबे क्यों रहते हो "सफ़र" ग़म में
© -प्रेरित 'सफ़र'