...

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“ये ज़ख़्म कहां भर पाते हैं”
ज़रा सा मुस्कुरा क्या लिए
लोग ज़ख़्म कुरेदने आ जाते हैं
भर रहे घावों पर फिर से
नमक छिड़कने आ जाते हैं
ज़रा सा जी क्या ली हमने ज़िंदगी
लोग मौत का आईना दिखा जाते हैं
उभर रहे सपनों को फिर से
जमकर तोड़ने आ जाते हैं
ज़रा सा मिल क्या लिए ख़ुद से
लोग मुंह मोड़ने आ जाते हैं
फिर दिखावा करके हमसे
बेमलतब सा रिश्ता जोड़ने आ जाते हैं
ज़रा सा फिसले क्या थे हम
लोग गिरा हुआ समझ जाते हैं
के फिर उठ कर खड़ा न होगा
सोच साथ ही छोड़ जाते हैं
ज़रा सा शरीफ़ क्या बने
लोग बदनाम करने चले आते हैं
के उनके साथ जुड़े संबंधों से
हमें गुमनाम कर चले जाते हैं
ज़रा सा दर्द को मरहम क्या मिला
सौ दर्द गिनाने आ जाते हैं
के ज़ख़्म बड़ी मुश्किल से भरते हैं
वो ये बात कहां समझ पाते हैं
© ढलती_साँझ