...

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श्रमिक दशा-संवेदनहीन सत्ता
देख दशा देश की ऐसी
मन विद्रोही बन जाता है
जिसके खून ने देश को सींचा
वह दर दर की ठोकर खाता है।

शासन है या शोषण समझ नही मै पाता हूँ
दो वक्त की रोटी भी अंधा गूंगा शासन से न दिया जाता है
धिक्कार योग्य है ऐसी सत्ता
जो केवल गरीबो के खून ही चूस सकती है।

जब असहायपन लाँघता सीमा
सहन नही कर पाता है
जिन शहरों को सजाया सवारा मजदूरों ने
उसी में रौंद दिया जाता है।

शहरों को सजाया जिसने फसलो को उगाया जिसने
उसकी संप्रभुता नष्ट कर दी जाती है
अरबों खरबो जो लेकर भागा
अपार सम्मान उसे दी जाती है।

नही कभी गरीबी मजदूरी देखी
नीति वही बनाते है
इस नीति के घनचक्कर में
मजदूर पीसे जाते हैं।

ऐसी विषम परिस्थिति में भी
मजदूरी कानून को नष्ट किया जाता है
शासन का घोर अन्याय
दृश्य होकर भी अदृश्य बन जाता है।

फिर मुआवजा देकर
आँसू पोछे जाते है
कौन सुने अब नही कोई है
दिल मे व्यथा छिपाते है।

व्यथा जब लेगी विद्रोही रूप
शासन सत्ता तहस नहस हो जाएगा
तब जाकर गरीब मजदूर के विद्रोही स्वर
सम्पूर्ण भारतवर्ष में तहलका मचाएगा।