...

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तकलीफ़ उन दिनों की
हो जाती हूँ रजस्वला उन पांच दिनों के लिए,
तो ना जाने क्यों बन जाती हूँ अछूत सभी के लिए,
ना कर सकती हूं पूजन देवी का,
ना कर सकती हूँ प्रवेश रसोईघर में,
जब गिरता है लहू उन 5 दिन मेरे ज़िस्म से,
तो ना जाने क्यों हो जाती हूँ बेगानी सी...!

सहती हूँ पेट दर्द पहले दिन से पांचवे दिन तक,
कभी होती है कमज़ोरी मेरे बदन में,
पर किसे बताऊँ मैं अपने दर्द को,
क्योंकि किसी को बोल नहीं सकती,
न सह सकती हूँ अपनो की बेगानगी...!

रिसता है खून मेरे ज़िस्म से बून्द बून्द,
पर ना जाने क्यों उस खून की बूंद को,
समझी जाती है गंदगी आखिर क्यों...?

सृजन करता है मासिकधर्म मेरा,
एक नए जीवन को,
जो गवाह होते है मेरे मातृत्व सुख के,
क्योंकि जब तक ना होएगी रजस्वला स्त्री,
क्या दे पाएगी जन्म वो किसी जान को,
मासिकधर्म निशानी है एक स्त्री के स्वयं से पूर्ण हो जाने की...!
© Rohit Sharma "उन्मुक्त सार"