...

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मन की पाती
"चाहूँ लिखना तुमको प्रिय पाती,
प्रियतम पर कुछ लिख न मैं पाती,
कोरे कागज़ पर कैसे मन के भाव उकेरू,
शब्दों को प्रेम रंगों से फिर रंग न पाती।

मन वीणा के गुंजित स्वर येही तो कहते,
भावों की सरिता संग प्रिय तुम ही तो बहते,
मिलन मन का संगम सा सुंदर पावन,
अविरल जिसमें हम तुम मिल कर बहते।

अधरों पर तब उसके मुस्कान मधुर बिखरती,
प्रिय प्रेम में रत निहार दर्पण कामिनी संवरती,
श्रृंगार सम्पूर्ण सोलह साजन का प्यार बना,
बसंत की नव कोपल सी तब यौवना निखरती।

नयन उनींदे रत जगे सुर्ख डोरों से भरे,
अलसाई सकुचाई हौले हौले से पग धरे,
नटखट से नादान सपन सलोने से शरमाये,
कर अठखेलियां रीझे कभी-कभी बैचेन करे।

जला दीप आशा का धरा मन के द्वारे,
प्रेम जोग लिया तोड़ जग के बंधन सारे,
अब तो आ दरस दिखा जाओ एक बार ,
ढूढ़ रहे तुमको हो अधीर दो नयन बावरे।

बैरन बन गयी रैन, दिवस दुश्मन हुआ,
विरह अग्नि में जल श्यामल मेरा तन हुआ,
साँसे मद्धम रुक रुक कर चलती,
प्रिय बिन सूना सब अर्थहीन जीवन हुआ,

आ जाओ अब कहे अनुभूति पल पल,
रात अमावस पूनम सी मेरी जाये ढल,
प्राण प्रिय प्रेमसुधा का जब रस पान करेंगे,
आकुल हृदय में खिल उठेंगे प्रेम के शतदल।"
'ऋcha'
© anubhootidilse