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बरसात की छम- छम बूंदे
बरसात की छम- छम बूंदे।
गिरी बदन पर सरक कर।
ठंडी हवाएं आती झिलमिलाकर।
करती गाल पर चुबन , कुंतल से छूकर।।


तब! बदन को आंचल से ढकने लगी।
उनकी सांसे कुछ कहने लगी।
कोई कस ले आकर अपनी बाहों में।
भीगी मै तन्हा दो पल यादें बटोरने लगी।।



उत्साह भरे बरसात में।
और थोड़ा सा मन हलचल।
वो छिप जाती बूंदों के डर से।
स्वाभाव की थी वो चंचल।।


जब एक झलक गई मेरी उन पर।
खड़ी होकर वो मुस्काने लगी।
टपकने लगे उनके ही होंठो से पानी।
वो नज़रों से इशारा करने लगी।।


मस्ती तो ऐसी थी उनकी।
जैसे हिरनी बागों में भीग रही हो।
हाथो से अपने बदन को कस रही थी।
जैसे बूंदे अपनी बाहों में छिपा रही हो।।



कभी हथेली से फेरती अपने चेहरे को।
कभी आसमां की ओर देखने लगती।
छम- छम वो बूंदे बरसात के और लहर।
बूंदे भी उनके साथ मस्ती करती।।



© All Manoj Kumar