...

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जमाने की कहानी
लिख रही हूं जमाने की कहानी,
जो चाहती हूं मैं जमाने को सुनानी।
हर शख्स को उलझन में घिरे देखती हूं,
सुलझी पहेलियों में उलझी देखती हूं।
किस्सा परेशानियां का ख़तम नहीं होता,
इंसां रोता है फिर भी दर्द कम नहीं होता।

सवालों में भी सवाल अब होने लगे है,
अपने होते होते सब पराए होने लगे हैं।
दौर नफरतों का बढ़ता जा रहा है,
भरोसा सबसे कहीं खोता जा रहा है।
एक दूजे को मारने सब तैयार बैठे हैं,
खुशियों को अपनी संसार उजाड़ बैठे है।

हसीं चेहरे पर असल किसी के आती नहीं,
जिंदगी की भीड़ में खुशियां भिनभिनाती नहीं।
अब शोर हर गली गली मचा हुआ है,
फिर कहीं किसी सीता का हरण हुआ है।
मार - काट में संसार अब भी कैसे जिंदा है,
हाय! इष्ठ मेरे, ये कैसी विपदा है।
और क्या अब इस जमाने का वर्णन करूं,
किस गीता के ज्ञान से इंसान में स्पंदन भरूं।