...

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देर न लगी
आँखों को ही रंगना था पर चरित्र भी रंगने लगी
रात! काजल से कालिख बनते देर न लगी
नही रुकना था, पर रुका! भटक गया पानी
खेत! उपजाऊ से ऊसर बनते देर न लगी
अपनों का भ्रमजाल था उलझा रहा जीकर
शरीर! रिश्तों की चिता बनी जलते देर न लगी
तुम बतलाओ क्या टूटा क्या छूटा सफ़र...