...

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रूह की रौनक़ें
बारिश की बूँदें भी
चली गईं वहीं
जहाँ छोड़ आये हम
लहलहाते खेत
ये शहर तो सूखा-सूखा ही है,
चाहे हरितिमा की बात हो
या फिर हो प्रेम-स्नेह
अपनेपन की बरसात
कुछ भी तो हरियाता नहीं
शब्दों की भाषा,
कविता का कथ्य
सब कुछ रेत की आकृति में ढला,
किन्तु विडम्बना ये है कि
रौशनाईयों में जीना
चाहें सब, लेक़िन रूह की
रौनक़े और
रौशनाईयों को पहचानेंगे कब!
जो गुमशुदा हो गये हैं
एहसास आत्मा की गहराई के,
कभी-कभी तो याद आते होंगे
भीड़ से बचकर तन्हाई में,
क्या वो लापता भावनाएँ फिर
लौट आयेंगी दुबारा रेशमी सा
लिबास ओढ़े, बहती कोमल पुरवाई सी....
आख़िर कहाँ खो जाते हैं रिश्ते
क्यों बेगाने से हो जाते हैं
ये बेहिसाब हसरतों की दुनिया
क्यों कतार दर कतार खड़ी हैं!

--Nivedita