...

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"बली"
बेटी को देना संस्कार,
माँ का पहला काम है,
आग लगा कि मुश्कुराना,
ये किस माँ का अभिमान है।

शादी के बाद साया बनके,
बेटी को रोज उकसाती है,
कानून की किताब में,
ये अपराधी क्यूं नही कहलाती है।

लड़के के माँ-बाप को,
आठो पहर खून के आँशु रुलाना,
लगाकर झूठा केस उनपर,
बुढ़ापे की लाठी को गिराना।

बेटा अपने बीवी को,
खुश रख कर भी रोता है,
जन्म देने वाला बाप,
धीरे धीरे जीवन से दूर होता है।

पत्नी का कायर पिता,
जब जब जोरु का गुलाम होता है,
पति तड़प तड़प के जीता है,
बस यही अंजाम होता है।

कानून बनाया वक़्त ने,
पुरुषों को असहाय बनाया,
स्त्री ने अहंकारवश,
अपना आशियाना खुद जलाया।

वाशिंग मशीन से कपड़े धुले,
ऐ सी से ठंडी हवाएं खाये,
घंटो फोन पर मायके बात करे,
ऐसी पत्नी संग वक़्त कैसे बिताएं।

बच्चे के जन्म के बाद,
पत्नी की जिम्मेदारी बढ़ जाती है,
दुःख तो तब होता है जब,
सास पति के खिलाफ भड़कती है।

ना बना खाना अब तू,
बर्तन धोने भी तेरा काम नही,
सास का अपनी बेटी के घर को डसना,
क्यूं अपराधियों के बीच इनका नाम नही।

पुलिस भी झूठे केसों को जानती है,
पर कानून के हाथों मज़बूर है,
ये समानता के अधिकार वाला समाज,
पुरुष को जिंदा जलाने को क्यूं मज़बूर है।

आत्महत्या की श्रेणी में,
स्त्री से ज्यादा क्यूं पुरूष आते हैं,
बुद्धिजीवी समाज में,
पुरुष उचित सम्मान क्यूं नही पातें।

अपने अरमानों का गला घोंटकर,
पति ने पत्नी की नाजायज मांग भी पूरी की,
अपनी माँ के जाल में फंसकर,
पत्नी ने क्यूं पति से दूरी की।

सिर्फ पति के पैसे में,
जीवन का पत्नी को सार दिखता है,
सास के अत्याचार के आगे,
पति का मान चरित्र सम्मान सब बिकता है।

क्या जीवन-पथ पर चलने में,
सिर्फ स्त्री की भूमिका भारी है,
आखिर अनगिनत यातनाओं के बाद भी,
पुरूष की बलि-प्रथा क्यूं जारी है।।
पुरुष की बली-प्रथा क्यूं जारी है।।