...

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अशक्त किंकर्तव्यविमूढ़ नजरें
#खोईशहरकीशांति
मगर आत्म में सिद्ध हो रही शांति थी

उम्र उनकी सयानी थी
मेरी मां से भी बड़ी वो मेहरबान
लगती मुझको मीठी ऐसी
जागती सी जैसे कोई कहानी थी

नज़रें पढ़ चुकी थी दुनियां के ढंग
चमकती नजरें पढ़ने लगी अब कुछ अजब
न सुने थे कानों ने मेरे कभी ऐसे
विरासतन बख्श रही अपने शब्दो की रवानी थी

वह था गुप्त सदा का जुबां पे था जो उसके
यूं तो कभी न उतरता हो प्रत्यक्ष मेरे
पराक्रमी शूर सा आ उतरता घट मेरे अनूप सा
चमकते हृदय के उस नूर को
देखना चाहता मैं करीब से किंतु वह
झटकता मुझे दूर ले जा पटकता गुरूर से

किंतु नजरें हैरान हो जाती
जर्जर सी काया उनकी थामती उसे ऐसे
तेज पुंज से भर सूर्य सी दप दपाती
शब्द की बारिशों को, रही हो वह मानों बहाती
खेलती विरल सी वह जानें किस देश में खो जाती

जिज्ञासा मेरी उत्कंठा से भर जाती
प्रश्नो पर मेरे प्रतिबंध लगाती
प्रत्यक्ष परिणाम करती प्रस्थित
पर अशक्त किंकर्तव्यविमूढ़ नजरें
रह जाती थी बस निहारती...।







© सुशील पवार