...

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बचपन के गलियारों में
बचपन के गलियारो में जब भी घूमती हूँ,
यादों की पोटली साथ ले ही आती हूँ।

वो स्नेह के पल वो ममता भरा हाथ,
ऐसा लगता है कभी न छूटे इनसे मेरा साथ।

लेकिन आज भी भीड़ में अपने आप को खोजती हूँ,
हर आँचल में वो सुकून के पल तलाशती हूँ।

पर आज भी तीर भालों से छलनी होती हूँ,
और अनेक काले सायों के सान्निध्य में जीती हूँ।

उजियारा है मेरे ही अन्दर इसकी पुष्टी भी करती हूँ,
पर न जाने क्यों फिर भी दूसरों पर आश्रित रहती हूँ।

मुझमें है शक्ति अपार ऐसा विश्वास दिलाती हूँ,
पर फिर एक धुडकी से ही डर जाती हूँ।

ढेर सारे सपने हर रोज़ बुनती हूँ,
पर क्यों उन्हें पूरा करने के लिए दूसरों की बैसाखियाँ टटोलती हूँ।

जीवन संघर्ष है ऐसा मानती हूँ,
पर फिर क्यों थोड़ी सी ठोकर से बिखर जाती हूँ

मैं शक्ति, प्रकृति,सृजनी हूँ
ऐसा दृढ़ अलाप ले क्यों नहीं बढ़ती हूँ।

काम छोटा बड़ा जो भी करती हूँ,
पूरी निष्ठा से करूँ ऐसा प्रण लेती हूँ।

हर्ष ,संयम,साधना से हर कृत करती हूँ,
उसकी शिक्षा का पालन करती व करवाती हूँ।

इसलिए कहती हूँ,
मैं भी हूँ।

रुचि प जैन