...

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* चेहरे का नूर *
रात के धनेरे में छुपे छुपे चहरे का नूर हैं,
उस पार के क़दम कभी राहों में चूर हैं।

मन के खलिस जागी आंखों में सन्नाटे हैं,
रौंद रहे रौशनी बंजर जहां आब-ए-नूर हैं।

न दाग़ कहीं न आग कहीं बाग़ के गुल हैं,
सहर के बहाव शाम के छाँव कहीं के हूर हैं।

चेहरा-नूमा के ख़बर में तमाम शहर चहलकदमी हैं,
जहाँ हल्की वहाँ दहकी पूरे मोहब्बत के तनुर हैं।

धुंआ धुंआ गुज़रे कुछ अब गमज़दा में भूले हैं,
पंखुड़ियों सी संवरे भंवरे बेनिशा चश्म-ए-बद्दुर हैं।

इशरत सा चमकता चेहरा सदा ऐन ढुंढता हैं,
अरसा हुए फ़लक को बिन बारिश फरेरे धूल हैं।

राह-रौ में गुमराह तन्हा दबे से नज़र आते हैं,
नूर ही नूर चहरे की क़यामत ढ़ाते एक हुजूर हैं।

इरशाद दे दूं खामुशी में भी बातें अंजान लगती हैं,
चेहरा कभी नूर-ए-ज़ुहूर न आए सिरमौर के कसूर हैं।

*राह-रौ - traveller
*फरेरे - सूखा
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© अलिशायरा🦋