सच्ची दिवाली 🪔
मैं नहीं मानती ऐसे त्योहार को त्योहार,
जिसमें खुशियों की सिर्फ ऊपरी परतें हों, और अंदर का मन ईर्ष्या और द्वेष से भरा हो।
जहां हंसी सिर्फ होंठों तक सीमित हो, और दिल के दर्द कोई सुनने वाला न हो।
जहां सब कुछ दिखावे के लिए हो, और इंसानियत कहीं खो गई हो।
ऐसी झूठी और खोखली दिवाली मुझे स्वीकार नहीं।
कहां खो गई वह दिवाली जो रिश्तों को जोड़ती थी,
जो दिलों में एक-दूसरे के लिए प्यार और अपनापन भरती थी?
आज लोग अपने दर्द छुपा कर हंसते हैं,
खर्चों के बोझ तले दबे हुए हैं, फिर भी बाहरी रौशनी में अपनी परेशानियों को छुपाने की कोशिश करते हैं।
क्या...
जिसमें खुशियों की सिर्फ ऊपरी परतें हों, और अंदर का मन ईर्ष्या और द्वेष से भरा हो।
जहां हंसी सिर्फ होंठों तक सीमित हो, और दिल के दर्द कोई सुनने वाला न हो।
जहां सब कुछ दिखावे के लिए हो, और इंसानियत कहीं खो गई हो।
ऐसी झूठी और खोखली दिवाली मुझे स्वीकार नहीं।
कहां खो गई वह दिवाली जो रिश्तों को जोड़ती थी,
जो दिलों में एक-दूसरे के लिए प्यार और अपनापन भरती थी?
आज लोग अपने दर्द छुपा कर हंसते हैं,
खर्चों के बोझ तले दबे हुए हैं, फिर भी बाहरी रौशनी में अपनी परेशानियों को छुपाने की कोशिश करते हैं।
क्या...