दूर कोई कान्ति
#दूर
दूर फिरंगी बन कर घूम रहा कोई,
मन बंजारा कहता है ढूंढ रहा कोई;
वृक्ष विशाल प्रीत विहार कर रहा कोई,
जैसे हृदय स्थल पे प्रहार कर रहा कोई।
चक्षुओं की चमक से प्रकाशित मन है,
उसकी नेह बातों से प्रफुल्लित तन है।
सुगन्ध से उसकी सुगन्धित उपवन है;
जैसे मदमस्त मध्यम-२बह रही पवन है।
उसकी मृदुल धुन जैसे घोलती मिश्री,
शोभा निकेतन की वो मेरे गृह की श्री;
मैं तो उसके कान्ति से प्रकाशित पिंड,
धन्य भाग्य मेरे कि वो मुझे मिली।
© ~ आकांक्षा मगन “सरस्वती”
दूर फिरंगी बन कर घूम रहा कोई,
मन बंजारा कहता है ढूंढ रहा कोई;
वृक्ष विशाल प्रीत विहार कर रहा कोई,
जैसे हृदय स्थल पे प्रहार कर रहा कोई।
चक्षुओं की चमक से प्रकाशित मन है,
उसकी नेह बातों से प्रफुल्लित तन है।
सुगन्ध से उसकी सुगन्धित उपवन है;
जैसे मदमस्त मध्यम-२बह रही पवन है।
उसकी मृदुल धुन जैसे घोलती मिश्री,
शोभा निकेतन की वो मेरे गृह की श्री;
मैं तो उसके कान्ति से प्रकाशित पिंड,
धन्य भाग्य मेरे कि वो मुझे मिली।
© ~ आकांक्षा मगन “सरस्वती”