...

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मेरी फरबरी
ना आंख लगती है तेरे बिना
ना दिल तेरे बिना लगता है
मुझे तो अब " फरबरी " भी
मातम का महीना लगता है
ना अच्छा लगे कुछ करना अब
ना खाना पीना लगता है
मुझे तो अब " फरबरी " भी
मातम का महीना लगता है

मैं तब उस फकीर को मान गया
वो एक नजर पहचान गया
कुछ तो "बच्चा" जग ने तूझसे
छीना छीना लगता है
मुझे तो अब " फरबरी " भी
मातम का महीना लगता है

किस मुंह खुदा से फरियाद करूं
तुझे खुदा से ज्यादा याद करूं
एक शेर में लिख दिया था
तेरा घर ही मदीना लगता है
मुझे तो अब " फरबरी " भी
मातम का महीना लगता है

ना तेरे साथ मिली ना तेरे बाद मिली
मेरी नज्म को ना इरशाद मिली
पर जिक्र तेरा मेरी बातो में
गुरबत में नगीना लगता है
मुझे तो अब " फरबरी " भी
मातम का महीना लगता है

पूरी चार फरबरी गुजर गई
जो इस बार फरबरी गुजर गई
आखरी रस्ता "दीप" तुझे फिर
जहर ही पीना लगता है
मुझे तो अब " फरबरी " भी
मातम का महीना लगता है


© शायर मिजाज