...

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अब ज़रूरी नहीं ✍️, कहना और सुनना।

लिखने, कहने को बहुत कुछ..।
मग़र..
अब लिखने सा शायद कुछ राहा नहीं,
कुछ कहनें की शायद अब ज़रूरत नहीं
हर दिए वचन का पुरा होना ज़रूरी नहीं!
वजह बताई जाएं..
के क्यों? ..
क्या?..
किसलिए..?
ऐसी अब कोई वजह रही नहीं
जगत से मैं भी बहुत कुछ सिख रहीं हूँ।
जिंहोंनें निर्णय लिए हैं,
कुछ सोच समझ कर ही लिए होंगें..
उनकें लिए जो उचित होगा
वही निर्णय लिया होगा।
चलो उनकी गुत्थी तो सुलझ गई
इतना काफ़ि हैं।
हर बात लोगों का जानना ज़रूरी नहीं।
अपनी गठरी तुम अपने साथ ही बाँध चलो,
आपके हर दर्द हर तकलीफ़ का पता सबको होना ज़रूरी नहीं,
इसका कोई अधिकारी नहीं।
बेवजह खिंचा तानी की दरकार नहीं,
चीज़ों को और ना उलझाओ..
विराम जब लग ही गया हैं
उन्होंने विराम जब दे ही दिया हैं,
विराम को विराम ही रहनें दो।
इसे और कोई चिन्ह न बनाओ।
हर बात का ज़ाहिर होना ज़रूरी नहीं हैं।
और अब शायद बहुत सी बातें ज़रूरी नहीं हैं।
किसी का जीवन जब ज़रा सहज हो गया हैं,
सहज रहनें दो उन्हें,
किसी की परेशानी ना बनों,
किसी की परेशानी का कारण ना बनों
किसी की कठिनाई और ना बढ़ाओ।
यह सफ़र शायद यहीं तक था।
अब कलम के जज़्बातों को भी थोड़ा आराम देदो।
बहुत चली हैं ये,
काग़ज़ के शहर बहुत घुमि हैं ये जज़्बातों की गठरी ढो के।
बहुत लिखा।
अब इसको भी थोड़ा आराम दे दो।
कदम अब थक चुकें हैं इसके भी
जज़्बाती कलम के कदमों को भी थोड़ा अब विश्राम दे दो।
यूँ जिन्होंने आपकों कभी सुनना ही नहीं चाहा,
उन्हें और क्यों तकलीफ़ देना?
यूँ भी अपनी तकलीफ़ किसी पर ज़ाहिर करना अच्छा नहीं लगता मुझे।
रहने दो दुनियाँ को दुनियाँ में शामिल
यूँ भी उनके पास फुरसत ज़रा कम हैं।
और अब मेरा भी कुछ कहने का,
अभिव्यक्त करने का,
मन ज़रा कम हैं।
लिखने का मन नहीं...
मेरा भी।
अब कोई किसी से नाराज़गी भी नहीं,
जानें दो लोगों को..
और जीने दो
उन्हें...
जैसे वे जीना चाहतें हैं।
रहने दो खुश
उन्हें
उनकी दुनियाँ में।
don't disturb them.
कभी जी आया तो लिखूँगी..
जी आया तो!
क्योंकि मैं ख़ुद को control करने की कोशिश नहीं करती,
ख़ुद को बांधने की चेष्ठा नहीं करती
उन बंधनों में
जो मैं नहीं हूँ।
सजग होकर जीना काफ़ि हैं
हर बात के लिए मन को मारना ज़रूरी नहीं
सजगता में उचित अनुचित का बोध समाया हुआ हैं,
आपकों दुनियाँ सा होंने की ज़रूरत नहीं हैं
मेरी सच्चाई मुझे मालूम हैं
इतना ही काफ़ि हैं।
हाँ,
दुनियाँ से सिख बहुत कुछ रही हूँ!
"हर वचन का पुरा होना ज़रूरी नहीं हैं।"
सिख बहुत कुछ रही हूँ दुनियाँ से!
के इतनी rigidity भी ठीक नहीं हैं
के "वादा किया तो निभाना ही हैं।"
"वचन दिया हैं तो उसे पुरा करना ही हैं।"
जिसे तुम integrity समझती हो,
वह भी एक तरह की rigidity ही हैं।
अड़ीयलता ही हैं।
इसीलिए दुनियाँ से बहुत कुछ सिख रही हूँ।
'लचीले' होने की परिभाषा मेरी
मैं बदल रही हूँ।
दुनियाँ से बहुत कुछ सिख रही हूँ मैं।
इसीलिए किसी से कुछ कहने की अब चाह नहीं।
यूँ तो शायद अब ज़रूरी नहीं.
मग़र..
जी आया तो
लिखूँगी...
मग़र
कहने के लिए नहीं..
किसी से।
कोई सुने आपको
इसलिए नहीं।
महज़ जी आया तो...

कोई सुने आपको
ऐसी अब ख्वाहिश ना रही।
किसी से कुछ कहने की
अब ख्वाहिश ना रही।
ज़रूरत न रही.. ।
कभी जी आया तो लिखूँगी
अपने जीवनी की
एक आंशिक कहानी
अपने दिल की बात
पन्ने पर उतारने का
जी आया तो
जी आया तो...!
मग़र यह अब ज़रूरी नहीं।
कुछ कहों आप
और कोई इत्मिनान से सुनें आपको
ऐसी अब कोई ख्वाहिश ही ना रही।
इसलिए..
जी आया तो कभी..
वह जज़्बाती कलम धरूँगी..
किसी और के लिए नहीं,
महज़ अपने लिए..
जी आया तो!
मेरी कलम
मेरा काग़ज़
मेरी किताब।
वरना चुप्पी की आग़ोश भली।
अपना वास्ता अपने से
जग से कोई राबता नहीं।

7.23am
16.9.2024