...

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सूनी हथेलियाँ



जब छूटने लगा था कुछ कुछ
तभी टूटने लगा था बहुत कुछ
अंतराल पसरने लगा था धीरे धीरे
कदम दर कदम …...
बढ़ते जा रहे थे फासले
शुरू में लगा
अरे बस यही तो छूटा
कोई न ….
अभी बहुत कुछ बाकी है
पर फिर और कुछ कम हो गया
तो सोचा दिल ने
जब वो छुटा तो इसे भी जाने दो
चलता है …...
क्यों किसी को बन्धन में रखना
फिर और कुछ छुटा
तो इस बार अंदर कुछ टूटा
पकड़ तो लिया था मन ने
कि अब और भी कुछ छिटकेगा
और बहुत कुछ फिसल जाएगा हथेलियों से
पर ज़ोर ज़बरदस्ती ठीक नहीं
जो अपना है वो रेत की तरह फिसलेगा नहीं
इसी विश्वास से मुट्ठी खोल दी
पर संवादहीनता ने वो रेत उड़ा दी
जैसे उसका कोई अस्तित्व ही नहीं था
और रह गईं फैली हुई सूनी हथेलियां

         पूनम अग्रवाल





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