...

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आखिरकार जीना सीख गए !
पता नही कितने चेहरे छिपे है इन बादलों के पीछे,
कुछ मुखौटे उतरे है, कुछ अभी भी बाकी है,

वफा को दफनाकर सब चढ़े है सीढ़ियां बेवफा की,
रेत सी बिखरी हुई थी इंसानियत, गमंड ने उसे भी उड़ा दि,

कलयुग में न रावण है न ही कौरव - है तो बस इंसान,
मारने से मरने तक सब कर सकते है वो,

इधर राम नाम जपते है तो उधर रावण को भी पूजते है,
दोगलापन तो यहा सबके चेहरे में साफ साफ दिखता है,

कहा सतयुग में शिव जी स्वयं सती के लिए रोए थे,
यहां तो प्यार में धोका देकर इंसान आंसू बहाते है,

दशानन से भी ज्यादा चेहरे है इन रंगीन इंसानों का,
वक्त इतना बदल गया की विश्वास पर से भी भरोसा उड़ गया,

आखिरकार कलयुग के हाथ में हाथ डाल कर चलना सीख ही गए,
अच्छे बुरे का चोर कर फिकर बस एसेही जीने लग गए!


© tuli