...

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वो भी क्या थे दिन
आज फिर मौका मिला मां की गोद में सोने का
फिर उन पुरानी यादों में खोने का

वह भी क्या थे दिन
जब ना थी कोई उलझन

बस खाओ पियो ऐश करो
चाहे जितना मर्जी आराम करो

ना कोई जिम्मेदारी थी सिर पर
ना कोई बंदिश थी मुझ पर

सौ सपने थे आंखों में
और उन्हें पूरा करने की होड़ थी दिल में

वह स्कूल जाना और वापस आना
मां के हाथ का खाना खाना

पापा ने फरमाइशें की थी पूरी
रिश्तो में कभी ना थी कोई दूरी

वह दिन-रात गलियों में खेलना
या चाहे जितना मर्जी झूले झूलना

मां बाप ने हमेशा नखरे उठाए
दुनिया भर के लाड लड़ाए

काश वो दिन लौट कर आए
फिर कभी ना वापस जाएं

वह भी क्या थे दिन
जब ना थी कोई उलझन

बस एक ख्वाहिश हैं अब ऐसी
मैं जिंदगी दूं अपने बेटे को वैसी

मैं भी उसके नखरे उठाऊँ
दुनिया भर के लाड लडाऊँ

मैं भी उसको अपनी गोद में सुलाऊँ
प्यार से उसका सर सहलाऊँ

जीवन में उसको एक अच्छा इंसान बनाऊं
दूसरे की मदद करना सिखाऊँ

कामयाबी चूमे उसके कदम
इंसानियत रहे दिल में हरदम

फिर याद करेगा वह भी यह दिन
जब ना थी जिंदगी में कोई उलझन।

दीप्ति Sood
23/05/20