...

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तुम कौन हो?
तुम दोस्त हो, यह मंज़ूर है
पर यह रिश्ता दोस्ती पर आँखें मूंद ले
यह अंतर को कुबूल नहीं।

आज शाम हमारी दोस्ती पर कुछ
लिखने बैठी तो सोचा
आज अपने अल्फ़ाज़ों को
स्याही से सजाया जाए...
लफ्ज़ों से खेला जाए, उन्हें परखा जाए।

पर देखो न, जल्दबाज़ी में यह खुदगर्ज़
कालिमा भी मुझसे कुछ रूठ सी गई,
शायद इसे भी हमारा सिर्फ दोस्त होना
मंज़ूर नहीं है ।

अब तुम ही बताओ इन कोरे पन्नों
को किस रंग में सजाऊं...
यह द्वंद्व कुछ बढ़ सा गया है ।

गुलाबी रंग मुझे पसंद नहीं
और लाल अभी कुछ सुहाता नहीं।
ठीक है, अब इस बेसबरी को थामा जाए
और सब रंगों में से श्वेत ही चुना जाए।

उजला, शुभ्र और धवल !

अच्छा सुनो, तुम्हें यह पसंद तो है न?
किसी भी रंग में रंग जाना, ढल जाना
अपनी मुखकृति भी बदल सके
उतना सक्षम और उतना प्रबल
यह रंग ही कुछ ऐसा है ।

तुम दोस्त हो, यह मंज़ूर है
पर यह रिश्ता दोस्ती पर आँखें मूंद ले
यह अंतर को कुबूल नहीं।

अच्छा ठीक है, अब कुछ व्यावहारिकता
ही अपना ली जाए,
तुम्हारी तारीफ़ में चंद लफ्ज़ों को खर्चा
जाए।

क्या तुम्हें पता है
कि तुम पर लाल रंग कितना खिलता है !
सबसे अलग दिखता है।
यूं तो मेघ रंग मुझे ज़रा नहीं भाता
पर कहना पड़ेगा तुम्हारी आंखों की रसिकता
के सामने तो...
उसे भी मेरी आंखों में ढलना पड़ता है।

तुम वो नहीं हो,
मेरी कल्पना कृति के अक्स तो बिल्कुल नहीं हो !
तुम अलग हो,
बहुत अलग...

इसलिए
अब यह भी बता दो,
तुम कौन हो?

© Somanshi

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