...

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अब मुझ से रस्ते तय नहीं होतें
अब मुझ से रस्ते तय नहीं होतें
आओ अब किसी मंज़िल पे मिलते हैं ।
ले कर सारा ज़रूरी ये सामान
चलो कहीं नज़दीक़ ही चलते हैं ।

हर ज़िन्दगी एक सफ़र हो, ज़रूरी तो नहीं
हर रात यूँ बसर हो, ज़रूरी तो नहीं
ज़रूरी तो नहीं मेरा मुसाफिर होना
हर मोड़ से गुज़र हो, ज़रूरी तो नहीं ।

जो जितना चल चुका, वहीं ठहर जाए
अब दिन भी ढल चुका, वहीं ठहर जाए ।
दिन तो ढल कर हर रोज़ चढ़ता है
मगर उनका क्या ‌जो ख़्वाब ढलते हैं?

अब मुझ से रस्ते तय नहीं होतें
आओ अब किसी मंज़िल पे मिलते हैं ।

रास्तों की कमी नहीं, कोई कितना चलेगा?
जब चाह ही रही नहीं, कोइ कितना चलेगा?
कोई कितना चलेगा इतना बोझ लिए?
जब मंज़िल कहीं नहीं, कोई कितना चलेगा?

अब हम चल चूकें, अब कहीं न जायेंगे,
आओ यहीं रुकें, अब कहीं न जाएंगे,
इस जहां में बैठने मिलता है नसीब से
हर रुकने वाले से सब लोग जलते हैं।

अब मुझ से रस्ते तय नहीं होतें
आओ अब किसी मंज़िल पे मिलते हैं ।

© TRQ

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