...

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इंसान बनना ज़रुरी है
रहना है क़रीब ग़र मुर्शद-ए-ख़ुदा के तो इंसान बनना ज़रुरी है
कहने को यूँ तो है हम इंसान मग़र अभी इंसान बनना ज़रुरी है

मशवरा बदलने का औरों को देने से पहले खुद बदलना ज़रुरी है
लिखने कहने से ज़्यादा ख़ुद भी उन बातों पर उतरना ज़रुरी है

देखने से क्या ख़ामियां औरों की ख़ामियां अपनी मिटाना ज़रुरी है
लगाकर फ़िरतें ज़ो नक़ाब भलाई का हक़ीक़त बनाना इसे ज़रुरी है

मुमकिन नही यूँ मुर्शद-ए-राह चलना बदलना आदतों को ज़रुरी है
यूँ ही चलने से क्या मुताबिक़ इसके ख़ुद को चलाना भी ज़रुरी है

वक़्त के रहते मुर्शद-ए-ख़ुदा को समझना वक़्त पर ख़ुदा ज़रुरी है
कुछ नही हूँ इसके आगे "अपूर्व " वक़्त रहते ये समझना ज़रुरी है।

© अनिल अरोड़ा "अपूर्व "