...

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“क्यूं ख़फ़ा है हर कोई”
किसपे यकीं करेंगे
ये हम सोचते रहे
किसको कहेंगे अपना
यही मसअला भी है
कोई भी अपना होता नही
हर जतन के बाद
हर शख़्स यहां
धोके पे धोके
दिए गए
हम इल्तिजा ओ इश्क़ के
मारे हुए लोग
क्यूं इल्तिजा पे इल्तिजा
करते हुए रहे
दी बददुआ भी ऐसी
हर इक शख़्स ने हमें
जो दिल को भी हमारे
बस चीरती रहे
ख़ामोश युंही चल दिये
कुछ भी नही कहा
कहते भी क्या
और कैसे
इस क़ाबिल ही न रहे
हमने हर एक शख़्स को
जो बनता हमारा
चाहा भी इतना ज़्यादा
कि न
कोई कमी रहे
पर थी तो कुछ कमी ही रही
हमसे ऐ खुदा
युंही नही हमसे
हर एक जान ख़फ़ा रही


© Arshi zaib