...

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कहीं तुम मिल जाओ तो।
निकल पड़ते हैं हम यूँही घर से टहलने रास्तों में, ये सोचकर कि उन रास्तों में, कहीं तुम मिल जाओ तो।

शौक़ से पढ़ते हैं हम ये शायरियाँ, खोए रहते हैं हम इनकी लफ़्ज़ों में, कि इन लफ़्ज़ों में, कहीं तुम मिल जाओ तो।

हर रात ताकते हैं हम उस चाँद को अपनी खिड़की से, निहारते रहते हैं उसे रातभर, कि शायद उस चाँद में कहीं तुम मिल जाओ तो।

ठीक है, हम इकरार नहीं करेंगे,
ना ही हम इज़हार करेंगे हमारे दिल के हाल का।
मान लिया हमने कि तुम्हें हमसे इश्क़ नहीं,
और हम तकरार भी नहीं करेंगे इस मलाल का।

पर अब देखेंगे हम ये आईना फिर कभी नहीं, क्या पता आईने में जो दो आँखें हमें दिखें, उन आँखों में,
कहीं तुम मिल जाओ तो।

© Shreya N.B.