...

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बचपन... #feelingnostalgic #anshanki

आ लौट चलें उस बचपन में,
जहाँ मासूम सपने संजोए थे,
गुड्डे गुडिये के खेल को,
हकीक़त कि हथेलियों से थपथपाए थे...

नाजुक से पल थे,
मासूम सी बातें,
तरसते है जिन्हें जीने को,
ऐसी थी वो रातें...

हर आहट पे डर जाते थे,
जो दिल करता था कर जाते थे,
ना दूनिया कि फ़िक्र थी,
ना परवाह उनकी बातों की...

तारे बन जाते दोस्त कभी,
कभी चंदा मामा भी,
ख्वाहिशें जिनसे जुड़ती रही,
हक़ उनपे बन गया वहीं...

बारिश की बूंदों में मचलते,
सावन के झूलों पे फिसलते,
फूलों कि खुशबू से महकते,
ख़ुदा कि कुदरत से चहकते...

हर बात पे एक सवाल उठता था,
जवाब भी लेना जरुरी बनता था,
"चूहे भी प्यारे हैं, रहते साथ हमारे है,
अपना घर उनका है, तो क्या उनका घर भी अपना है? "
"पापा कहते तू प्यारा है, मम्मी का दुलारा है,
तो कैसे भूल जाते है सब कि शादी में हमें भी बुलाना है"...

बातें ये हमें हँसाती हैं,
आज सोचते हैं तो आँख भर आती है,
वक़्त खेलता है कैसे खेल यहाँ,
बचपन और जवानी हमें सिखाती है...

कहते है जिस जज़्बात को मासूमियत,
जाने कहाँ खोने लगी है,
दुनिया ने दिखाई ऐसी हकीक़त,
मासूमियत भी रोने लगी है...

माँ के आँचल से निकले,
तो दूर तलक कुछ नज़र ना आया,
कदम कदम पर इतना हारे,
कि अपने ही साये ने साथ ना निभाया...

जज़्बातों का यहाँ बाजार लगा है,
जिसने हर बार ठगा है,
पूछो तो इस दुनिया से,
आखिर यहाँ तेरा कौन सगा है...

मतलब की दुनिया और धोखा है प्यार,
फ़िर भी एक दिन और जीने को,
सौ मौत मरता है संसार,
कैसे छीन लूँ वो प्यार जिसे छीन के भी होगा हक़ नहीं,
कैसे नौच लूँ वो तारे,
जो नज़र ड़ालते कहते अपने नहीं,
कैसे माँग लूँ वो राहतें जो चाहते हुए भी पूरी नहीं,
ये पल क्यों नहीं लौट जाता उस बचपन में,
जहाँ मासूम सपने संजोए थे,
रोता था कोई और,
हम पलकें अपनी भिगोए थे....

अंशिता अंकित शुक्ला...