...

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शून्य
जीने चला था जिंदगी उंगली पकड़ के,
बड़े नाज से बचपन तन के अकड़ के,
युवा होते ही खुद चलने की चाह हो गयी,
राहे करोड़ कुछ कुछ अलग थी,
थी ठोकरे हजार ओर बढ़ा चला,
ये सोच के ईमान से सब मिल जाएगा,
ले साथ हमसफ़र भी संग जुड़ गया,
कुछ रंग संग थे वो भी उड़ गया,
घसीटते रहे जिंदगी के बोझ को हर तुफा में,
के वक़्त बदलेगा मेरा भी इस जहाँ में,
कुछ अपनो ने तो कुछ गैरो ने गम दिया,
कह बोल गए जो भी किया हमने कम किया,
बाते भी शूल सी दिल में उतर गयी,
सब भूल गए...