...

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ग़ज़ल
किताब-ए-ज़ीस्त में मुझे कोई निसाब ना मिला!
बहुत सवाल थे जिन्हें कभी जवाब ना मिला!

मिले बहुत मुझे, मगर कोई सवाब ना मिला!
चले जो साथ दूर तक वो हम-रिकाब ना मिला!

गुज़र गई ये उम्र बस, चराग़-ए-ग़म के साए में,
जो रौशनी करे मुझे, वो आफ़ताब ना मिला!

बड़ी थी आरज़ू मिरी, हक़ीक़तें सँवार लूँ,
नसीब ख़ार ही हुए, कोई गुलाब ना मिला!

झुलस गए बुरी तरह...