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गरमदिन की दोपहरी
गर्मी की दोपहरी में
तपे हुए नभ के नीचे काली सड़के तारकोल कीअंगारे सी जली पड़ी थी छाह जलीथी पेड़ों की भी पत्ते झुलस गए थे नंगे नंगे लंबा तगडा कंकालों से वृक्ष खड़े थे हो अकाल के जो अवतार।

एक अकेला तांगा था दूरी पर कोचवान की काली सी चाबुक के बल पर वह बढ़ता था घूम-घूम जो बल खाती थी सर्प समान बेदर्दी से पढ़ती थी दुबले घोड़े की गर्म पीठ पर भाग रहा वह तारकोल की जली अंगीठी के ऊपर से ।

कभी एक ग्रामीण धरे कंधे पर लाठी सुख-दुख की मोटी सी गठरी लिए पीठ पर भारी जूते फटे हुए जिनमें से थी झांक रही गांव की आत्मा जिंदा रहने के कठिन जतन में पाव बढ़ाएं आगे जाता।

घर की खपरैलों के नीचे चिड़िया भी दो-चार चोच खोल उड़ती छीपती थीं खुले हुए आंगन में फैली कड़ी धूप से।


बड़े घरों के कुत्ता फालतू बाथरूम में पानी की हल्की ठंडक में नयन मूंद कर लेट गए थे।

कोई बाहर नहीं निकलता सांझ समय तक थप्पड़ खाने गर्म हवा के संध्या की भी चहल-पहल और यदि गहरे सुने रंग की चादर गर्मी के मौसम में।