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कहीं भी रहूं मैं फिक्र तुम्हारी होती है
कहीं भी रहूं मैं फिक्र तुम्हारी होती है
अंदर ही अंदर जिक्र तुम्हारी होती है
होती हो नहीं पास तुम लेकिन
नैनों में छाई तेरी तस्वीर होती है

तेरी कायाकल्प का व हर रीत होती है
मेरी लेखनी में खबर तेरी प्रीत होती है
तुम हो जहां भी मैं हूं जहां भी दूरियां कुछ नहीं
जब प्रेम की बंधन तेरी मेरी अटूट होती है

पता नहीं यह घड़ी कब बीते
बड़ी पहाड़ सी यह दिन मन मित होती है
तुम नहीं होती हो तो यह दिल
बड़ी बेचैन और अधीर होती है

होता हर कुछ पास लेकिन
तेरी पास की खुशी कहां नसीब होता है
क्या कहूं जाने मन
दो दिल को तड़पाने वाला यह रित हमें ठीक नहीं लगता है

मन व्याकुल होता तेरी पास आने को
लेकिन जीवन जीने को होंठों पर वह गीत आता है
जीते भी लकड़ी, मरते भी लकड़ी
तो थम जाता पांव और कमाने में व्यस्त यह तेरा मनमीत होता है

कहीं भी रहूं मैं,,,,,,

संदीप कुमार अररिया बिहार
© Sandeep Kumar