हमेशा लिखे हुए पर क्यों यकीन होता है हमारा। - मेरे सत्य की परिभाषा
लिखे हुए पर हम बहुत यकीन करते हैं उसे पर हमारा दिल, जमीर यकीन ना करें तो वह सच नहीं है।
मेरा लिखा हुआ अभी सच ना हो ऐसा भी हो सकता है।
पर यदि आपका दिल मानता है तो सच ही होगा।
कहने का आशय हमेशा जो होता है जो लिखा होता है जो साबित किया जाता है। वह सत्य नहीं हो सकता है।
चाहे वह किसी भी बारे में हो।
इंसान सर्वथा लालची और कपटी रहा है उसने नियम कानून भी जिसे उसने अपने ही जैसे इंसानों को लूटा है।
जब-जब क्रांति हुई है तब तक न्याय स्थापित हुआ है। कभी किसी दुराचारी दोस्त ने न्याय को स्वतः क्या अपनाया है।
कभी किसी ने माना है कि वह जो कर रहा है वह गलत है।
सत्य कहना एक बहुत बड़ी बात है और असत्य का साथ देना बिल्कुल आसान है।
मजबूर इंसान असत्य का साथ देने को मजबूर रहता है। समर्थ्यवान और दुराचारी इंसान असत्य का साथ इसलिए देता है।
सत्य स्वयं को खुद ही परिभाषित करता है। दुष्ट कभी मानते नहीं है और
और मजबूर कभी साबित नहीं कर पाता।
सत्य खुद ही अपने आप को साबित कर पाए ऐसा होता हैं। लेकिन सत्य भी खुद को तब परिभाषित कर पता है जब सत्य को मानाने वाला हिम्मत करें।
सवाल तो यह है जब अत्याचारी इतना अत्याचारी और दुष्ट हो सकता है। तुम मजबूर इंसान खुद में हिम्मत लाकर उसका सामना क्यों नहीं करता है?
असत्य के कई साथी होते हैं। परंतु सत्य का कोई साथ ही नहीं होता है। इसलिए सत्य जीत जाता है और सत्य हार जाता है। सत्य का प्रचम ऊंचा बना रहता है।
और सत्य मजबूर होकर अकेला पड़ जाता है।
तो इसलिए सत्य को कोई नहीं लिखता और असत्य का बखान होता है। बड़े चालाक होते हैं वह लोग।जो असत्य को आगे पहुंचाते हैं।
वह सत्य की नकल करके सत्य को सत्य साबित करते हैं।
तो क्या सत्य को साबित करना इतना मुश्किल है,हाँ बिल्कुल मुश्किल है लेकिन नामुमकिन बिल्कुल नहीं है।
हिम्मत कर और रोना बंद कर इंसान तो खुद को पत्थर में बदल।
पत्थरों के बारे में नहीं जानता। पत्थर अगर चाहे तो इमारत बना देते हैं। पत्थर अगर चाहे तो लोगों के ईश्वर बन जाते हैं। पत्थर अगर मुंह पर पड़े तो...
मेरा लिखा हुआ अभी सच ना हो ऐसा भी हो सकता है।
पर यदि आपका दिल मानता है तो सच ही होगा।
कहने का आशय हमेशा जो होता है जो लिखा होता है जो साबित किया जाता है। वह सत्य नहीं हो सकता है।
चाहे वह किसी भी बारे में हो।
इंसान सर्वथा लालची और कपटी रहा है उसने नियम कानून भी जिसे उसने अपने ही जैसे इंसानों को लूटा है।
जब-जब क्रांति हुई है तब तक न्याय स्थापित हुआ है। कभी किसी दुराचारी दोस्त ने न्याय को स्वतः क्या अपनाया है।
कभी किसी ने माना है कि वह जो कर रहा है वह गलत है।
सत्य कहना एक बहुत बड़ी बात है और असत्य का साथ देना बिल्कुल आसान है।
मजबूर इंसान असत्य का साथ देने को मजबूर रहता है। समर्थ्यवान और दुराचारी इंसान असत्य का साथ इसलिए देता है।
सत्य स्वयं को खुद ही परिभाषित करता है। दुष्ट कभी मानते नहीं है और
और मजबूर कभी साबित नहीं कर पाता।
सत्य खुद ही अपने आप को साबित कर पाए ऐसा होता हैं। लेकिन सत्य भी खुद को तब परिभाषित कर पता है जब सत्य को मानाने वाला हिम्मत करें।
सवाल तो यह है जब अत्याचारी इतना अत्याचारी और दुष्ट हो सकता है। तुम मजबूर इंसान खुद में हिम्मत लाकर उसका सामना क्यों नहीं करता है?
असत्य के कई साथी होते हैं। परंतु सत्य का कोई साथ ही नहीं होता है। इसलिए सत्य जीत जाता है और सत्य हार जाता है। सत्य का प्रचम ऊंचा बना रहता है।
और सत्य मजबूर होकर अकेला पड़ जाता है।
तो इसलिए सत्य को कोई नहीं लिखता और असत्य का बखान होता है। बड़े चालाक होते हैं वह लोग।जो असत्य को आगे पहुंचाते हैं।
वह सत्य की नकल करके सत्य को सत्य साबित करते हैं।
तो क्या सत्य को साबित करना इतना मुश्किल है,हाँ बिल्कुल मुश्किल है लेकिन नामुमकिन बिल्कुल नहीं है।
हिम्मत कर और रोना बंद कर इंसान तो खुद को पत्थर में बदल।
पत्थरों के बारे में नहीं जानता। पत्थर अगर चाहे तो इमारत बना देते हैं। पत्थर अगर चाहे तो लोगों के ईश्वर बन जाते हैं। पत्थर अगर मुंह पर पड़े तो...